चुनावी कसरत का साधन बनकर रह गई गांधी टोपी
राजनीति के गलियारे में अब हिट हुई मोदी टोपी
शिवप्रताप @ मुंबई
नेता के दो टोपी
औ' गदहे के दो कान,
टोपी अदल-बदलकर पहनें
गदहा था हैरान।
एक रोज गदहे ने उनको
तंग गली में छेंका,
कई दुलत्ती झाड़ीं उन पर
और जोर से रेंका।
नेता उड़ गए, टोपी उड़ गई
उड़ गए उनके कान,
बीच सभा में खड़ा हो गया
गदहा सीना तान!
सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की कविता की ये पंक्तियां मौजूदा दौर की राजनीति पर अब भी काफी हद तक लागू होती हैं. फर्क इतना है कि नेता के पास अब दो नहीं बल्कि कई टोपियों का विकल्प उपलब्ध है. आजकल पॉलिटिक्स के शॉपिंग मॉल में टोपियों की भरमार है. गांधी टोपी के बाद नेहरू टोपी, सुभाष टोपी, नए दौर में मुलायम टोपी, अण्णा टोपी और अब मोदी टोपी... हर ओर टोपी ही टोपी है. राजनीतिज्ञ टोपी पहन रहे हैं. बाद में जनता को भी टोपी पहनाएंगे.
महाराष्ट्र में ‘टोपी पैनाना’ का मुहावरा प्रचलित है. इसका मतलब होता है किसी को चूना लगाना या धोखा देना. वैसे देखा जाए, तो चुनावों में वादों की झड़ी लगाने के बाद उसे मुकर जानेवाले नेता एक तरह से जनता को धोखा ही देते हैं. लेकिन राजनीति के गलियारे में टोपी पहनाने से ज्यादा चर्चा टोपी उछालने की होती है. मौजूदा दौर की टोपी उछालने की राजनीति में गांधी टोपी को एक तरह से हाशिए पर धकेल दिया गया है. दुनिया में भले ही भारत को गांधी के देश के रूप में पहचाना जाता हो, लेकिन भारत में योजनाबद्ध तरीके से धीरे-धीरे गांधी या गांधी के प्रतीकों को राजनीतिक परिदृश्य से गायब करने की नाकाम कोशिश की जा रही है. गांधीजी के बाद अब गांधी टोपी को विमर्श से गायब करने की जमीन तैयार कर दी गई है.
गांधी टोपी की विरासत सबसे ज्यादा समृद्ध
टोपी पहनने की परंपरा कहां से आई यह शोध का विषय हो सकता है, क्योंकि हर समाज की अपनी एक वेशभूषा होती है, जिसमें टोपी की भी अपनी जगह होती है. जैसे पारसी टोपी, कश्मीरी टोपी, एस्किमो टोपी, नेपाली टोपी, ईरानी टोपी रूसी टोपी, तुर्की टोपी, अंग्रेजी टोपी आदि. लेकिन भारतीय राजनीति की बात करें तो यहां गांधी टोपी की विरासत सबसे ज्यादा समृद्ध रही है.
किसी पलटी नौका की तरह आगे पीछे नुकीली और मध्य भाग में फूली खादी से बनी जिस टोपी हम गांधी टोपी के नाम से जानते हैं, उसका आविष्कार गांधी जी ने नहीं किया था. उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, बंगाल, कर्नाटक और बिहार में तो सदियों पहले से इस प्रकार की टोपी पहनी जाती रही है. उच्च और मध्यम वर्ग के लोग बिना किसी राजनीतिक प्रेरणा से इस तरह की टोपियां पहनते थे. बात साफ है कि गांधी से पहले गांधी टोपी अस्तित्व में थी. लेकिन यह जरूर कहा जा सकता है कि गांधी ने इस टोपी को लोकप्रिय बनाने में उल्लेखनीय योगदान दिया.
अफ्रीका की जेल में गांधी ने पहनी टोपी
दरअसल जब मोहनदास करमचंद गांधी दक्षिण अफ्रीका में वकालत कर रहे थे, तो वहां अंग्रेजों के अत्याचार से दुखी होकर उन्होंने सत्याग्रह का मार्ग अपनाया. अंग्रेजों ने नियम बना रखा था कि हर भारतीय को अपनी उंगलियों के निशान देने होंगे. गांधीजी ने इसका विरोध किया और स्वेच्छा से अपनी गिरफ्तारी दी. उन दिनों दक्षिण अफ्रीका की जेलों में नीग्रो कैदियों को एक विशेष तरह की टोपी पहननी पड़ती थी. इन जेलों में रंगभेद के अनुसार भारतीयों को भी नीग्रो की श्रेणी में रखा गया था. इसलिए 1907 से 1914 के दौरान जब गांधीजी दक्षिण अफ्रीका में जेल में थे, तो उन्हें भी वह विशेष तरह की टोपी पहननी पड़ी थी. आगे चलकर गांधी जी लगातार यह टोपी पहनने लगे ताकि लोगों को अपने साथ हो रहे भेदभाव का एहसास होता रहे. हालांकि जब गांधी अफ्रीका से भारत आए तो उन्होंने उस विशेष टोपी के बजाय भारतीय पगड़ी पहन रखी थी.
टोपी पहनने की परंपरा कहां से आई यह शोध का विषय हो सकता है, क्योंकि हर समाज की अपनी एक वेशभूषा होती है, जिसमें टोपी की भी अपनी जगह होती है. जैसे पारसी टोपी, कश्मीरी टोपी, एस्किमो टोपी, नेपाली टोपी, ईरानी टोपी रूसी टोपी, तुर्की टोपी, अंग्रेजी टोपी आदि. लेकिन भारतीय राजनीति की बात करें तो यहां गांधी टोपी की विरासत सबसे ज्यादा समृद्ध रही है.
किसी पलटी नौका की तरह आगे पीछे नुकीली और मध्य भाग में फूली खादी से बनी जिस टोपी हम गांधी टोपी के नाम से जानते हैं, उसका आविष्कार गांधी जी ने नहीं किया था. उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, बंगाल, कर्नाटक और बिहार में तो सदियों पहले से इस प्रकार की टोपी पहनी जाती रही है. उच्च और मध्यम वर्ग के लोग बिना किसी राजनीतिक प्रेरणा से इस तरह की टोपियां पहनते थे. बात साफ है कि गांधी से पहले गांधी टोपी अस्तित्व में थी. लेकिन यह जरूर कहा जा सकता है कि गांधी ने इस टोपी को लोकप्रिय बनाने में उल्लेखनीय योगदान दिया.
अफ्रीका की जेल में गांधी ने पहनी टोपी
दरअसल जब मोहनदास करमचंद गांधी दक्षिण अफ्रीका में वकालत कर रहे थे, तो वहां अंग्रेजों के अत्याचार से दुखी होकर उन्होंने सत्याग्रह का मार्ग अपनाया. अंग्रेजों ने नियम बना रखा था कि हर भारतीय को अपनी उंगलियों के निशान देने होंगे. गांधीजी ने इसका विरोध किया और स्वेच्छा से अपनी गिरफ्तारी दी. उन दिनों दक्षिण अफ्रीका की जेलों में नीग्रो कैदियों को एक विशेष तरह की टोपी पहननी पड़ती थी. इन जेलों में रंगभेद के अनुसार भारतीयों को भी नीग्रो की श्रेणी में रखा गया था. इसलिए 1907 से 1914 के दौरान जब गांधीजी दक्षिण अफ्रीका में जेल में थे, तो उन्हें भी वह विशेष तरह की टोपी पहननी पड़ी थी. आगे चलकर गांधी जी लगातार यह टोपी पहनने लगे ताकि लोगों को अपने साथ हो रहे भेदभाव का एहसास होता रहे. हालांकि जब गांधी अफ्रीका से भारत आए तो उन्होंने उस विशेष टोपी के बजाय भारतीय पगड़ी पहन रखी थी.
गांधी टोपी ने भरा असहयोग आंदोलन में दम
सबसे पहले 1918 से 1921 के बीच असहयोग आंदोलन के दौरान राजनीति कार्यकर्ताओं ने इसे पहनने की परंपरा शुरू की. जब गांधी इस टोपी को पहनने लगे तो इसकी लोकप्रियता बहुत बढ़ गई और इससे परेशान होकर ब्रिटिश सरकार ने गांधी टोपी के उपयोग पर पाबंदी लगाने का प्रयास किया. गांधी ने केवल एक-दो साल यानी 1920-21 में गांधी टोपी पहनी थी. लेकिन गांधीजी से प्रेरित होकर उनके अधिकांश अनुयायियों और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सदस्यों के लिए गांधी टोपी पहनना गौरव की बात हो गई.
आजाद हिंद फौज के नायक रहे नेताजी सुभाषचंद्र बोस की खाकी टोपी को भी तब जनमानस में विशेष सम्मान प्राप्त था. आजादी के बाद भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू भी गांधी टोपी पहनते रहे. हालांकि उनकी टोपी गांधी टोपी का संशोधित संस्करण थी, जिसे बाद में नहरू टोपी भी कहा जाने लगा. गांधी जी के बाद पूर्व प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री व मोरारजी देसाई की पहचान भी गांधी टोपी से रही है, लेकिन इसके बाद धीरे-धीरे यह टोपी प्रचलन से बाहर हो गई. लालबहादुर शास्त्री के बाद शीर्ष राजनीतिज्ञों ने हमेशा गांधी टोपी पहनने के बजाय खास मौकों पर गांधी टोपी पहनना शुरू किया और धीरे-धीरे गांधी टोपी श्रमिकों और ग्रामीणों तक सीमित होकर रह गई. आज भी मुंबई में अधिकांश डिब्बावाले गांधी टोपी पहनते हैं. उन्हें देखकर महसूस होता है कि गांधी टोपी की सादगी ने किस तरह स्वतंत्रता आंदोलन में दम भरा होगा.
सबसे पहले 1918 से 1921 के बीच असहयोग आंदोलन के दौरान राजनीति कार्यकर्ताओं ने इसे पहनने की परंपरा शुरू की. जब गांधी इस टोपी को पहनने लगे तो इसकी लोकप्रियता बहुत बढ़ गई और इससे परेशान होकर ब्रिटिश सरकार ने गांधी टोपी के उपयोग पर पाबंदी लगाने का प्रयास किया. गांधी ने केवल एक-दो साल यानी 1920-21 में गांधी टोपी पहनी थी. लेकिन गांधीजी से प्रेरित होकर उनके अधिकांश अनुयायियों और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सदस्यों के लिए गांधी टोपी पहनना गौरव की बात हो गई.
आजाद हिंद फौज के नायक रहे नेताजी सुभाषचंद्र बोस की खाकी टोपी को भी तब जनमानस में विशेष सम्मान प्राप्त था. आजादी के बाद भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू भी गांधी टोपी पहनते रहे. हालांकि उनकी टोपी गांधी टोपी का संशोधित संस्करण थी, जिसे बाद में नहरू टोपी भी कहा जाने लगा. गांधी जी के बाद पूर्व प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री व मोरारजी देसाई की पहचान भी गांधी टोपी से रही है, लेकिन इसके बाद धीरे-धीरे यह टोपी प्रचलन से बाहर हो गई. लालबहादुर शास्त्री के बाद शीर्ष राजनीतिज्ञों ने हमेशा गांधी टोपी पहनने के बजाय खास मौकों पर गांधी टोपी पहनना शुरू किया और धीरे-धीरे गांधी टोपी श्रमिकों और ग्रामीणों तक सीमित होकर रह गई. आज भी मुंबई में अधिकांश डिब्बावाले गांधी टोपी पहनते हैं. उन्हें देखकर महसूस होता है कि गांधी टोपी की सादगी ने किस तरह स्वतंत्रता आंदोलन में दम भरा होगा.
केजरीवाल की ‘आप की टोपी’
नेप्थय की खूंटी पर जा टंगी गांधी टोपी को 2011 में गांधीवादी अण्णा हजारे के आंदोलन ने एक बार फिर प्रचलन में लाया. नौजवान सड़कों पर ‘मैं भी अण्णा’ लिखी गांधी टोपी पहनकर निकलने लगे. लेकिन गांधीवादी अण्णा हजारे के कंधे पर सवार होकर दिल्ली के मुख्यमंत्री पद की कुर्सी पर पहुंचे पूर्व नौकरशाह अरविंद केजरीवाल ने बाद में गांधी टोपी पर अपनी पार्टी का चिह्न ‘झाड़ू’ लगाकर इसे ‘आपकी टोपी’ के रूप में प्रचलित कर दिया. केजरीवाल का गांधी प्रेम कितना सतही और कितना मतलबी है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पंजाब में सत्ता हथियाते ही सबसे पहले उनकी पार्टी ने गांधी की तस्वीर को बाहर का रास्ता दिखाया. पंजाब में मुख्यमंत्री भगवंत मान के कार्यालय में भगतसिंह और डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर की तस्वीरें लगी हैं, लेकिन गांधीजी की तस्वीर नदारद है. हकीकत यह है कि भगतसिंह और डॉ. आंबेडकर यदि जीवित होते, तो वे खुद भी गांधीजी की तस्वीर को महत्व देते. लेकिन यही केजरीवाल जब गुजरात में चुनाव प्रचार के लिए पहुंचे तो साबरमती आश्रम जाकर चरखा कातने लगे. इस दौरान उनके बगल में बैठे पंजाब के मुख्यमंत्री और पूर्व कॉमेडियन भगवंत मान तब शायद मन ही मन कोई चुटकुला सोच रहे होंगे.
गांधी को अपनाने और छोड़ने का खेल
खैर केजरीवाल अकेले ऐसे नेता नहीं हैं, जो गांधी को अपनाने और छोड़ने के खेल की प्रक्टिस कर रहे हों. यह खेल तो भाजपा भी खेल रही है. महात्मा गांधी की जन्मभूमि गुजरात में साबरमती आश्रम तो है, लेकिन स्टैच्यू आॅफ यूनिटी के रूप में सरदार वल्लभ भाई पटेल का कद ऊंचा करके गांधी को छोड़ने का खेल खेला गया. पर जब अमेरिकी राष्ट्रपति गुजरात दौरे पर आते हैं, तो उन्हें विश्व धरोहर के रूप में साबरमती आश्रम की सैर कराकर गांधी को अपनाने की मजबूरी पैदा हो जाती है. गांधी विलक्षण हैं. राजनीति के नए चाणक्यों के लिए इस फकीर से पीछा छुड़ा पाना आसान नहीं है.
लाल टोपी पर गरमाई सियासत
खैर हम फिर टोपी के मुद्दे पर लौटते हैं. दरअसल उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव के दौरान गोरखपुर में प्रचार कर रहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने समाजवादी पार्टी पर निशाना साधते हुए कह दिया कि लाल टोपी वाले ( सपाई) रेड अलर्ट हैं, उनसे प्रदेश को खतरा है. मोदी ने लाल टोपी को खतरे की घंटी बताकर देश की सियासत में नई बहस छेड़ दी. हालांकि बाद में काशी में रोड शो के दौरान मोदी खुद टोपी पहने नजर आए.
खैर लाल टोपी को खतरा बतानेवाले मोदी पर सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने जोरदार पलटवार करते हुए ट्वीट किया- बीजेपी के लिए रेड अलर्ट है महंगाई का, बेरोजगारी-बेकारी का, किसान-मजदूर की बदहाली का, हाथरस, लखीमपुर, महिला व युवा उत्पीड़न का, बर्बाद शिक्षा व्यवस्था, व्यापार व स्वास्थ्य सेवाओं का और लाल टोपी का, क्योंकि लाल टोपी ही बीजेपी को सत्ता से बाहर करेगी. आगे उन्होंने लिखा लाल का इंकलाब होगा, बाइस में बदलाव होगा. वहीं आम आदमी पार्टी (आप) नेता और राज्यसभा सांसद संजय सिंह ने पीएम मोदी के बयान पर पलटवार करते हुए ट्विटर पर प्रधानमंत्री मोदी की काली टोपी पहने हुए फोटो पोस्ट के साथ ही लिखा- काली टोपी वालों का दिल और दिमाग दोनों काला होता है. दरअसल संजय सिंह ने आरएसएस की टोपी के जरिए पीएम मोदी पर तंज कसा.
लाल टोपी का क्रांति से गहरा कनेक्शन
मोदी के बयान पर मचे घमासान के बीच यह बात सामने आई कि लाल टोपी का रूसी क्रांति से गहरा कनेक्शन है. रूसी क्रांति (1917-1922) के दौरान इसका खूब इस्तेमाल हुआ. रूस में इसे बाड्योनोवका के नाम से जानते हैं. लेकिन भारत की बात करें, तो आजादी के बाद जब सोशलिस्ट पार्टी बनी तो अपनी अलग छाप छोड़ने के लिए उन्होंने लाल टोपी को अपनी पहचान बनाया. दरअसल जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया और कृपलानी जैसे समाजवाद के सभी प्रमुख लोग पहले कांग्रेस में थे. ये लोग इस बात को लेकर नाराज हो गए कि कांग्रेस गांधीजी के रास्ते से हट रही है. कॉटेज इंडस्ट्री की कल्पना गांधीजी ने की थी, जबकि ये लोग (नेहरू और कांग्रेस) हैवी इंडस्ट्री में चले गए. जबकि जेपी, लोहिया का मानना था कि चीन-जापान जैसे देश कॉटेज इंडस्ट्री को अपनाकर ही आगे बढ़ रहे. इन लोगों ने पहले कांग्रेस की बैठक में अपनी बात रखी. लेकिन अनदेखा कर दिए जाने के बाद 1948 में अलग होकर सोशलिस्ट पार्टी बनाई. 1948 में जेपी रूस गए. लौटकर उन्होंने इसे (लाल टोपी) पहनना शुरू किया. क्योंकि दुनिया में जहां-जहां जैन क्रांति हुई है वो लाल रंग का प्रयोग करते रहे. भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद ने भी लाल रंग का प्रयोग किया. 1992 में जब नेताजी मुलायम सिंह यादव ने जब समाजवादी पार्टी बनाई तो उन्होंने भी लाल टोपी की इस विरासत को आगे बढ़ाया और वहीं से यह आधुनिक समाजवादी पार्टी की पहचान बनी.
अब मोदी टोपी की धूम
खैर, गांधी टोपी, लाल टोपी, अण्णा टोपी के बारे में तो आपने पढ़ लिया. अब बात करते हैं मोदी टोपी की. यूपी सहित पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में चार राज्यों में भाजपा की जीत के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अहमदाबाद में रोड शो किया. इस दौरान उन्होंने भगवा रंग की विशेष टोपी पहन रखी थी. इस टोपी को गुजरात भाजपा ने तैयार किया था. इसका डिजाइन उत्तराखंड की टोपी और ब्रह्मकमल से लिया गया है, जिसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस बार के गणतंत्र दिवस समारोह में पहना था. इसे आकर्षक और फैशनेबल तरीके से बनाया गया है ताकि युवाओं को भी लुभा सके. बस फिर क्या, भजापा को अपनी भगवा टोपी यानी मोदी टोपी मिल गई है. हाल ही में भाजपा संसदीय दल की बैठक में लोकसभा और राज्यसभा के सभी 400 भाजपा सांसदों को इस तरह की पांच नई टोपियों के सेट के साथ-साथ एनर्जी बूस्टर चॉकलेट का उपहार दिया गया. बात तय है कि 2024 के लोकसभा चुनाव में मोदी टोपी की धूम रहेगी.
रही बात भारत के लोगों की तो वे बस यही प्रार्थना कर सकते हैं कि नेता चाहे जिस रंग की, चाहे जिस ढंग की टोपी पहनें, लेकिन जनता को टोपी पहनाना छोड़ महंगाई कम करने, आपसी भाईचारा बढ़ाने, शिक्षा, स्वास्थ्य, विकास जैसे मुद्दों पर ध्यान दें.
जबरदस्त एसपी जबरदस्त रहा। पूरा पढ़ा
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