शिवप्रताप यादव
हाथ में खप्पर, गले में नरमुंडों की माला, मुख से असाधारण रूप से बाहर निकली जिव्हा, ताजा-ताजा फटे किसी ज्वालामुखी की तरह दहकते नेत्र... और इन नेत्रों की गहराई में छलकता ममत्व का महासागर...। किसी प्रतिमा या तस्वीर में महाकाली का ऐसा प्रचण्ड विकराल रूप देखकर भले ही शरीर का रोम-रोम सिहर उठे, कलेजे का कोना-कोना थर्रा उठे, लेकिन हृदय में एक ही संबोधन उभरता है- ‘मां... मां महाकाली!’
इतना विराट, इतना प्रचण्ड, इतना विकराल स्वरूप; पर इसके दर्शन मात्र से हृदय का पोर-पोर ‘मां’ की पुकार से भर उठे! क्या यह सब बड़ा विरोधाभासी नहीं लगता? आकर्षक रूप-रंग, आकर्षक शृंगार, विविध प्रकार के रत्नजड़ित आभूषणों और दिव्य अस्त्र-शस्त्र से अलंकृत अन्य किसी ‘दिव्यज्योति’ की छवि देखकर हमारे हृदय में ‘देवी’ का संबोधन उभरता है। यह ‘दिव्यता’ के प्रति नतमस्तक होने की श्रद्धा के साथ-साथ हमें हमारी ‘तुच्छता’ के एहसास से भर देनेवाला भाव होता है।
‘देवी’ और ‘मां’ में बड़ा अंतर प्रतीत होता है। ‘मां’ से जहां डाट-फटकार लगने का भय होने के बावजूद हर चिंता से मुक्त देनेवाली ‘पुचकार’ पाने की गारंटी होती है, वहीं ‘देवी’ की कृपा पाने के लिए आचार-विचार, नियम-शुद्धि जैसे कड़े उपायों से गुजरना पड़ता है। ‘मां’ कह देने भर से भारी-भरकम ‘क्षमा-प्रार्थना’ जैसी विधियों के छूट जाने का मलाल मन को बेचैन नहीं करता।
‘महाकाली’ की छवि से ‘मां’ का जुड़ा होना इस सृष्टि की सबसे प्राचीन और सर्वप्रथम प्रार्थना का भी प्रतीक है। इंद्र, अग्नि, वरुण, वायु आदि देवताओं का आह्वान करने से भी पहले निश्चित ही इस सृष्टि ने सर्वप्रथम ‘मां’ का आह्वान किया होगा। मानव मन के अंधतमस में ‘ज्योतिर्मयी’ मां के उतरने की कामना जब प्रार्थना बनकर चेतन अधरों पर और अधिक तीव्र हुई होगी, तब निश्चित ही इस रहस्य की धुंध छंटने लगी होगी कि जब कभी यह अनंत ब्रह्मांड अस्तित्व में आया होगा, तब भी सर्वप्रथम ‘मां’ का नाद ही गूंजा होगा।
क्या इस ‘ब्रह्मांड शिशु’ ने अपने रुदन से अपनी जननी को अपने अस्तित्व का एहसास नहीं कराया होगा? क्या ध्यानमग्न ‘महाकाल’ महादेव ने मन ही मन इस ‘ब्रह्मांड शिशु’ के प्रस्फुटन को अपने आशीष से नहीं सहेजा होगा? क्या ‘महाशिव’ की ‘महाशक्ति’ महाकाली ने अपने नेत्रकमल खोलकर इस ‘ब्रह्मांड शिशु’ के इर्दगिर्द सुरक्षा का एक कवच नहीं तैयार किया होगा? क्या इस मां ने अपने ‘ब्रह्मांड शिशु’ के मौलिक कणों को एक द्रव्यमान नहीं प्रदान किया होगा?
ऐसा तो नहीं है कि मौलिक कणों को द्रव्यमान प्रदान करने की प्रक्रिया 1964 में पीटर हिग्स की ‘हिग्स बोसान थ्योरी’ की परिकल्पना से पहले अस्तित्व में ही नहीं थी! पीटर हिग्स की इस थ्योरी की परिकल्पना के 48 साल बाद सर्न की प्रयोगशाला में लार्ज हैड्रॉन कोलाइडर में ‘गॉड पार्टिकल’ यानी ‘ईश्वरीय कण’ को खोज निकालने का डंका पीटा गया। हालांकि किसी सुनिश्चित निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए खोज का सिलसिला अभी जारी है। पर मूल बात यह है कि पश्चिम के हिग्स बोसान जब कुछ खोजेगे, तो वह ‘गॉड पार्टिकल’ ही खोजेंगे, क्योंकि पश्चिम का लगभग समूचा दर्शन ‘सर्वोच्च शक्ति’ को ‘पिता’ परमेश्वर के रूप में देखता है। अगर पूरब इसे खोजता, तो इसे निस्संदेह ‘मदर पार्टिकल’ की संज्ञा मिलती।
पूरब के दर्शन में ‘सर्वोच्च शक्ति’ को आद्यशक्ति के रूप में देखने की प्रथा रही है। दरअसल इस ब्रह्मांड के ‘डीएनए’ में ही मां है, तभी तो शक्तिकणों की लीला रचती ‘महाकाली’ की छवि देखते ही मन में ‘मां’ का भाव उठता है। हमारे दर्शन ने संसार को ‘चक्र’ कहा है। यह कितना सटीक है, इसका उदाहरण इस बात से मिलता है कि इस संसार की, इस जीवन की, सृष्टि में मौजूद हर कण की सारी गति वर्तुलाकर है। चीजें जहां से शुरू होती हैं, लगभग उसी दशा में आकर खत्म होती हैं। एक स्त्री से जन्म मिलता है, तो मृत्यु में भी निश्चित ही किसी न किसी प्रकार से उसकी भूमिका होगी। जो ‘क्रिएटिविटी’ का कारण है, ‘डिस्ट्रक्शन’ के लिए उसका कारणीभूत होना स्वाभाविक है।
अस्तु, आज नवरात्रि के सातवें दिन हम ‘कालरात्रि’ की पूजा करेंगे। ‘कालरात्रि’ मां दुर्गा का सातवां रूप हैं और नवदुर्गाओं में से एक हैं, जबकि ‘महाकाली’ दस महाविद्याओं में से एक हैं और परमशक्ति मानी जाती हैं। कालरात्रि जहां विद्युत की माला धारण करती हैं, वहीं महाकाली नरमुंडों की माला पहनती हैं। कालरात्रि भक्तों की बाधाएं दूर करनेवाली ‘शुभंकारी’ देवी हैं, तो महाकाली काल-प्रवाह, जीवन-मृत्यु और मोक्ष को जोड़नेवाली आद्यशक्ति। आप सभी को नवरात्रि की शुभकामनाएं!
हाथ में खप्पर, गले में नरमुंडों की माला, मुख से असाधारण रूप से बाहर निकली जिव्हा, ताजा-ताजा फटे किसी ज्वालामुखी की तरह दहकते नेत्र... और इन नेत्रों की गहराई में छलकता ममत्व का महासागर...। किसी प्रतिमा या तस्वीर में महाकाली का ऐसा प्रचण्ड विकराल रूप देखकर भले ही शरीर का रोम-रोम सिहर उठे, कलेजे का कोना-कोना थर्रा उठे, लेकिन हृदय में एक ही संबोधन उभरता है- ‘मां... मां महाकाली!’
इतना विराट, इतना प्रचण्ड, इतना विकराल स्वरूप; पर इसके दर्शन मात्र से हृदय का पोर-पोर ‘मां’ की पुकार से भर उठे! क्या यह सब बड़ा विरोधाभासी नहीं लगता? आकर्षक रूप-रंग, आकर्षक शृंगार, विविध प्रकार के रत्नजड़ित आभूषणों और दिव्य अस्त्र-शस्त्र से अलंकृत अन्य किसी ‘दिव्यज्योति’ की छवि देखकर हमारे हृदय में ‘देवी’ का संबोधन उभरता है। यह ‘दिव्यता’ के प्रति नतमस्तक होने की श्रद्धा के साथ-साथ हमें हमारी ‘तुच्छता’ के एहसास से भर देनेवाला भाव होता है।
‘देवी’ और ‘मां’ में बड़ा अंतर प्रतीत होता है। ‘मां’ से जहां डाट-फटकार लगने का भय होने के बावजूद हर चिंता से मुक्त देनेवाली ‘पुचकार’ पाने की गारंटी होती है, वहीं ‘देवी’ की कृपा पाने के लिए आचार-विचार, नियम-शुद्धि जैसे कड़े उपायों से गुजरना पड़ता है। ‘मां’ कह देने भर से भारी-भरकम ‘क्षमा-प्रार्थना’ जैसी विधियों के छूट जाने का मलाल मन को बेचैन नहीं करता।
‘महाकाली’ की छवि से ‘मां’ का जुड़ा होना इस सृष्टि की सबसे प्राचीन और सर्वप्रथम प्रार्थना का भी प्रतीक है। इंद्र, अग्नि, वरुण, वायु आदि देवताओं का आह्वान करने से भी पहले निश्चित ही इस सृष्टि ने सर्वप्रथम ‘मां’ का आह्वान किया होगा। मानव मन के अंधतमस में ‘ज्योतिर्मयी’ मां के उतरने की कामना जब प्रार्थना बनकर चेतन अधरों पर और अधिक तीव्र हुई होगी, तब निश्चित ही इस रहस्य की धुंध छंटने लगी होगी कि जब कभी यह अनंत ब्रह्मांड अस्तित्व में आया होगा, तब भी सर्वप्रथम ‘मां’ का नाद ही गूंजा होगा।
क्या इस ‘ब्रह्मांड शिशु’ ने अपने रुदन से अपनी जननी को अपने अस्तित्व का एहसास नहीं कराया होगा? क्या ध्यानमग्न ‘महाकाल’ महादेव ने मन ही मन इस ‘ब्रह्मांड शिशु’ के प्रस्फुटन को अपने आशीष से नहीं सहेजा होगा? क्या ‘महाशिव’ की ‘महाशक्ति’ महाकाली ने अपने नेत्रकमल खोलकर इस ‘ब्रह्मांड शिशु’ के इर्दगिर्द सुरक्षा का एक कवच नहीं तैयार किया होगा? क्या इस मां ने अपने ‘ब्रह्मांड शिशु’ के मौलिक कणों को एक द्रव्यमान नहीं प्रदान किया होगा?
ऐसा तो नहीं है कि मौलिक कणों को द्रव्यमान प्रदान करने की प्रक्रिया 1964 में पीटर हिग्स की ‘हिग्स बोसान थ्योरी’ की परिकल्पना से पहले अस्तित्व में ही नहीं थी! पीटर हिग्स की इस थ्योरी की परिकल्पना के 48 साल बाद सर्न की प्रयोगशाला में लार्ज हैड्रॉन कोलाइडर में ‘गॉड पार्टिकल’ यानी ‘ईश्वरीय कण’ को खोज निकालने का डंका पीटा गया। हालांकि किसी सुनिश्चित निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए खोज का सिलसिला अभी जारी है। पर मूल बात यह है कि पश्चिम के हिग्स बोसान जब कुछ खोजेगे, तो वह ‘गॉड पार्टिकल’ ही खोजेंगे, क्योंकि पश्चिम का लगभग समूचा दर्शन ‘सर्वोच्च शक्ति’ को ‘पिता’ परमेश्वर के रूप में देखता है। अगर पूरब इसे खोजता, तो इसे निस्संदेह ‘मदर पार्टिकल’ की संज्ञा मिलती।
पूरब के दर्शन में ‘सर्वोच्च शक्ति’ को आद्यशक्ति के रूप में देखने की प्रथा रही है। दरअसल इस ब्रह्मांड के ‘डीएनए’ में ही मां है, तभी तो शक्तिकणों की लीला रचती ‘महाकाली’ की छवि देखते ही मन में ‘मां’ का भाव उठता है। हमारे दर्शन ने संसार को ‘चक्र’ कहा है। यह कितना सटीक है, इसका उदाहरण इस बात से मिलता है कि इस संसार की, इस जीवन की, सृष्टि में मौजूद हर कण की सारी गति वर्तुलाकर है। चीजें जहां से शुरू होती हैं, लगभग उसी दशा में आकर खत्म होती हैं। एक स्त्री से जन्म मिलता है, तो मृत्यु में भी निश्चित ही किसी न किसी प्रकार से उसकी भूमिका होगी। जो ‘क्रिएटिविटी’ का कारण है, ‘डिस्ट्रक्शन’ के लिए उसका कारणीभूत होना स्वाभाविक है।
अस्तु, आज नवरात्रि के सातवें दिन हम ‘कालरात्रि’ की पूजा करेंगे। ‘कालरात्रि’ मां दुर्गा का सातवां रूप हैं और नवदुर्गाओं में से एक हैं, जबकि ‘महाकाली’ दस महाविद्याओं में से एक हैं और परमशक्ति मानी जाती हैं। कालरात्रि जहां विद्युत की माला धारण करती हैं, वहीं महाकाली नरमुंडों की माला पहनती हैं। कालरात्रि भक्तों की बाधाएं दूर करनेवाली ‘शुभंकारी’ देवी हैं, तो महाकाली काल-प्रवाह, जीवन-मृत्यु और मोक्ष को जोड़नेवाली आद्यशक्ति। आप सभी को नवरात्रि की शुभकामनाएं!

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